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मुख्यपृष्ठ / ब्लॉग / लाइफ सक्सेस / इसे कहते है हौसलों की असली उड़ान ( अरुणिमा सिन्हा )

इसे कहते है हौसलों की असली उड़ान ( अरुणिमा सिन्हा )

By: RabiyaLast Updated: 07 Jan, 2019

इंसान चाहे तो क्या नहीं हो सकता बस उसके हौसले बुलंद होने चाहिए। हमने बहुत से ऐसे लोगो को देखा है की जो हाथ या पैर न होने पर भी वो काम कर देते हैं जो हर कोई नहीं कर सकता। ये सिर्फ न ऐसा असंभव काम करते है बल्कि दुनिया के लिए मिशाल बन जाते हैं। आज हम आपको एक ऐसी ही लड़की अरुणिमा सिन्हा के बारे में बताने वाले हैं जिसके बारे में जानकर आपको असंभव को संभव करने की ताकत मिलेगी।

Arunima-Sinha

जी हाँ, हम बात कर रहे हैं एक ऐसी लड़की की जो न सिर्फ हमे बहादुरी का सबक सिखाती है बल्कि हमारे देश का नाम रोशन करने के साथ साथ ये भी बताती हैं की हमे जिंदगी में मुशिबतो से हारना नहीं चाहिए और उनका सामना करके अपने आपको चट्टान की तरह मजबूत बनाये रखना चाहिए। अरुणिमा की कहानी निराशा के अंधकार में प्रकाश की एक किरण के सामान है जो सम्पूर्ण अन्धकार को प्रकाश में बदल देती है।

अरुणिमा सिन्हा बास्केटबाल, फ़ुटबाल और हाकी खेलना चाहती थी मगर उनकी जिंदगी में एक ऐसा हादसा हुआ तभी जिसने उनसे उनका एक पैर छीन लिया जो की एक बहुत ही बुरी घटना थी। मगर यह हादसा भी उनके हौसलों को हिला नहीं पाया और एक दिन उन्होंने एवरेस्ट पहाड़ पर चढ कर एक नया खिताब अपने नाम कर लिया। आईये हम आपको बता रहे है की किस तरह से अरुणिमा ने जिंदगी से हार मानने की जगह उसे ही एक नया सबक सिखाया।

  • जीवन में जल्दी सफलता प्राप्त करने के तरीके

अम्बेडकर नगर के एक शहजाद पुर इलाके में पन्डोला नाम के एक छोटे से गाँव में एक छोटे से मकान में रहने बाली अरुणिमा सिन्हा का बस एक ही सपना था भारत को वालीबाल में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दिलाना छठी क्लास से ही वह इसी जूनून के साथ पढाई कर रही थी। लेकिन उसकी किस्मत में कुछ और ही करना लिखा था।

अरुणिमा सिन्हा का अब तक का जीवन बहुत ही उतार चढाव भरा रहा है उनका परिवार बिहार से है परिवार में एक माँ,  एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई है पिता जी सेना में थे और वो लोग सुल्तानपुर आ गये थे चार साल की नन्ही सी उम्र में उनके पिता इस दुनिया में नहीं रहे और वो  पिता की छत्र छाया से वंचित हो गयी।

बिना पति के अपने 3 बच्चो का लालन पालन करना उनकी माँ के लिए बहुत मुश्किल था। माँ को आंबेडकर नगर में स्वास्थ्य विभाग में एक नौकरी मिल गयी और जीवन की गाडी धीरे धीरे पटरी पर आने लगी। अरुणिमा ने समाज शास्त्र में स्नाकोत्तर की डिग्री लेने के साथ राष्टीय स्तर वॉलीबाल खिलाड़ी के रूप में पहचान बनाने लगी।

अरुणिमा शुरू से ही जुझारू थी और उनका मन पढाई से ज्यादा खेल कूद में लगता था। उन्होंने स्थानीय और जिला स्तर पर कई पुरुस्कार भी जीते लेकिन वो जहा तक पहुचना चाहती थी उन्हें वह नहीं मिल सका।

उनका कहना है की "मेरे पास जूनून था लेकिन कोई सीढी नहीं थी हौसला था मगर कोई रास्ता नहीं था" फिर उन्होंने नौकरी करने का फैसला किया यह सोच कर की नौकरी के सहारे वह अपनी मंजिल की तरफ आगे बढेंगी एक दिन घर से निकल पड़ी केंद्रीय औधोगिक सुरक्षा बल ( सी आई एस ऍफ़ ) के नोएडा दफ्तर जाने के लिए।

magar ye 11 April 2011 का दिन उनकी जिंदगी का ऐसा दिन बन गया जिसे वह कभी भूल नहीं सकती। उस दिन वह पद्मावती एक्सप्रेस ट्रेन से ( सी आई एस ऍफ़ ) नोएडा के दफ्तर जा रही थी की बीच रास्ते में कुछ लुटेरों ने सोने की चेन छिनने का प्रयास किया, जिसमें कामयाब न होने पर उन्होंने अरुणिमा जी को ट्रेन से नीचे फेंक दिया|

जिंदगी और मौत के बीच जूझते  कई दिन गुजर गए अंततः जिंदगी बचाने के लिए उन्हें अपने बाए पैर की बलि देनी पड़ी ऊपर से तरह तरह की बाते दामन पर तरह तरह के छीटे। पास के ट्रैक पर आ रही दूसरी ट्रेन उनके बाएँ पैर के ऊपर से निकल गयी थी जिससे उनका पूरा शरीर खून से लथपथ हो गया। वे अपना बायाँ पैर खो चुकी थी और उनके दाएँ पैर में लोहे की छड़े डाली गयी थी। उनका चार महीने तक दिल्ली के आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (AIIMS) में इलाज चला।

समाज उन्ही पर तोहमत लगा रहा था जैसे इस सारे प्रकरण में उन्ही की गलती है ऐसा लगा जैसे उनके लिए सब कुछ ख़त्म हो गया है।  इस हादसे ने उन्हें लोगों की नज़रों में असहाय बना दिया था और वे खुद को असहाय नहीं देखना चाहती थी।

लेकिन उन्हें कुछ बड़ा करना था और उन्होंने हार नहीं मानी और फिर  शुरू हुयी जिंदगी को नए सिरे से सवारने की जद्दोजहद। परिवार वालो ने हौसला दिया और अपने मन में तो लगन थी ही मदद के हाथ भी आगे आये इनोबेटीब नाम की संस्था चलाने बाले अमेरिकी निवासी डा. राकेश श्रीवास्तव और उनके भाई शैलेश श्रीवास्तव ने अरुणिमा के लिए कृत्रिम पैर (लोहे का पैर) बनवाया जिसे पहन कर वह चलती थी।

अब उनके कृत्रिम पैर लगाया जा चुका था और अब उनके पास एक लक्ष्य भी था वह लक्ष्य था दुनिया कि सबसे ऊँची पर्वत चोटी माउंट एवेरेस्ट को फतह करना।

एम्स से छुट्टी मिलते ही वे भारत की एवरेस्ट पर चढ़ने वाली पहली महिला पर्वतारोही “बिछेन्द्री पॉल” से मिलने चली गई और एवरेस्ट पर चढ़ाई करने के लिए बिछेंद्री पाल से प्रशिक्षण लेना शुरू किया और अंततः 52 दिनों की कठिन चढ़ाई के बाद आखिरकार उन्होंने 21 मई 2013 को दुनिया की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट को 26 साल की अरुणिमा ने  फतह कर लिया।

अब तक कोई विकलांग ऐसा नहीं कर पाया था और किसी ने नहीं सोचा था कि एक महिला जिसे चलती ट्रेन से लुटेरों ने फेंक दिया था जिसके कारण उनका एक पैर कट चुका है वह माउंट एवरेस्ट पर चढ़ सकती है। एवरेस्ट फतह करने के बाद भी वे रुकी नहीं।उन्होंने विश्व के सातों महाद्वीपों की सबसे ऊँची पर्वत चोटियों को फतह करने का लक्ष्य बनाया और जिसमें से अब तक वे कई पर्वत चोटियों पर तिरंगा फहरा चुकी है।

दो साल पहले अपने साथ हुए हादसे को वो हमेशा याद रखती है उनका मानना है की उस हादसे को याद रखती हूँ इसी लिए आज यहाँ तक पहुच पाई हूँ।

एवरेस्ट पर पहुच कर इतिहास बनाने बाली अरुणिमा का इरादा शारीरिक रूप से अक्षम लोगो के लिए खेल अकादमी शुरू करने का है वह कहती है मै अपने जैसे लोगो की मदद करना चाहती हूँ इस अकादमी से जब मेरे जैसे ऊँची चाहत रखने वाले लोग निकलेंगे तब मुझे लगेगा की मेरे साथ जो हुआ वो सब ठीक था क्योकि अगर मेरे साथ ये सब न हुआ होता तो आने वाली पीढ़ी को हौसला कौन दे पता।

तकदीर के भरोसे क्यों  बैठे तकदीर हम बनायेंगे। अपने मन में आत्मविश्वास खुद ही हम जगायेंगे।

ऊँचे हो सपने हमारे और मजबूत हो इरादे, मुश्किल हो चाहे जो भी कदम हम बढायेगे।

सही बात है जब मजबूत इरादों के साथ जब सपनो को मजबूत इरादों के पंख लग जाते है तो हर उच्चाई छोटी नज़र आती है। इस बात को साबित कर दिया है अरुणिमा सिन्हा ने। आज अरुणिमा सिन्हा दुनिया के लाखो, करोडो युवाओं के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है।

  • कामयाब इंसान कैसे बने, अपनी मंजिल तक पहुचने के लिए क्या करें

एक भयानक हादसे ने अरुणिमा की जिंदगी बदल दी वे चाहती तो हार मान कर असहाय लोगो की तरह अपनी जिंदगी जी सकती थी। लेकिन उन्हें असहाय रहना मंजूर नहीं था। उनके हौसले और प्रयासों ने उन्हें फिर से एक नई जिंदगी दे दी। अरुणिमा जैसे लोग भारत की शान है और यही वो लोग है जो नए भारत का निर्माण करने में एक नींव का काम कर रहे है।

अगर आपको येपोस्ट पसंद आये और अरुणिमा सिन्हा जी की बहादुरी की कहानी अच्छी लगे तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर जरुर करें।

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लेखक: Rabiya

Mera name rabiya hai aur main ek student hu, mujhe apni knowledge logo ke sath share karna achha lagta hai.

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टिप्पणियाँ ( 5 )

एक टिप्पणी जोड़ें
  1. Anuj Sharma

    19 Oct, 2016 at 10:50 am

    really sir. It's wanderfull.
    Mai bhi kuch aisa hi krna chahta hoon jise duniya dekhe. Sir iam also visually impaired person.
    Iam blind.
    Mai already ap k bllog "supportmeIndia" se bahut inspired hua hoon. I hope aap yahan b wahi motivational change laoge.

    जवाब दें
    • जुमेदीन खान

      19 Oct, 2016 at 2:31 pm

      Jarur bro main puri koshish karunga.

      जवाब दें
  2. suraj yadav

    19 Oct, 2016 at 8:11 am

    Really yah story bahut hi motivational hai. Mujhe bhi apni life me kuchh krna hai. Thanks for sharing

    जवाब दें
  3. deep

    18 Oct, 2016 at 6:54 pm

    Sir, aapne bahut hi accha blog banaya SMI ki tarah ye blog bi acchi PageRank hasil karega

    जवाब दें
    • जुमेदीन खान

      18 Oct, 2016 at 6:59 pm

      धन्यवाद दीप

      जवाब दें

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